मंगलवार, 27 अगस्त 2019

करोड़ों की गोल्डन गर्ल- PV सिंधु, एक दिन में कमाती हैं 1.5 करोड़, जानें कैसे होती है कमाई

https://www.zeebiz.com/hindi/india/pv-sindhu-net-worth-endorsements-salary-2019-badminton-world-champion-golden-girl-assets-12798

खुशखबरी! सिर्फ 3 दिन में बैंक अकाउंट में आएगा PF का पैसा, EPFO कर रहा तैयारी

https://www.zeebiz.com/hindi/personal-finance/epf-withdrawal-kyc-holder-get-provident-fund-settlement-3-days-filing-online-claim-provident-fund-12827

बुधवार, 11 जुलाई 2018

"अब तो देश फिर वही जकड़ा हुआ कोई गुलाम लगता है"
हम किस दौर में हैं? क्या आप जानते हैं? मैं तो नहीं जानता... क्योंकि, अगर इसी दौर को 21वीं शताब्दी कहते हैं तो शायद ही मैं इस दौर के लायक हूं.. 'अपनी हस्ती को मिटाने की कूबत नहीं मुझमें, मैं इस दौर की धार में बहता रहता हूं' शायद यही हकीकत है. क्योंकि, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होने के बावजूद डर लगता है. आप कुछ नहीं कर सकते. आपके हर कदम पर पहरा है. कोई छुपकर आपको देख रहा है. ये देश नहीं जकड़ा हुआ कोई गुलाम ज्यादा लगता है.

हिंदुत्व की राजनीति, पिछड़े वर्ग की लड़ाई, दलितों को आगे लेकर चलने की दुहाई देने वाली राजनीतिक पार्टियों ने हकीकत में देश के हर परिवार, समुदाय यहां तक की लोगों के विचारों को भी बांट दिया है. लेकिन, क्यों? क्या ये ही न्यू इंडिया की पहल है. जहां कोई अपनी बात रखता है तो देशद्रोही हो जाता है. या फिर उसे यही सोचना चाहिए कि वो इन सफेदपोश डाकुओं की कठपुतली सा हो गया है. बहरहाल, मकसद सिर्फ इतना सा है कि खुद को जगाने की जरूरत है. किसी की हत्या नहीं करनी है, लेकिन ईमान को बचाना है. हम किससे लड़ते हैं, वह भी तो भाई है. हम किस पर अत्याचार का आरोप लगाते हैं. यकीनन विचारों को बेच दिया गया है. कोई भी चीज आपकी सुरक्षित नहीं है. सरकार को आपकी हर चीज की जानकारी होनी चाहिए, वरना वो तो बेनामी हो जाएगी. अब इस दौर को बदलने वाला कोई नहीं है. कोई महात्मा नहीं, कोई पटेल, कोई नहरू नहीं है. अब लड़ाई है कौन कितना गिरेगा और कितना उठेगा. कोई नोटों के बिस्तर पर सोएगा और फकीर की झोली उठाकर वापस चल देगा. सवाल के जवाब मिलेंगे तो कब? अपने विचार लिखिए और सोचिए आप किस दौर में हैं?

शनिवार, 3 दिसंबर 2016

भारतीय सिनेमा और हमारा समाज !
भारतीय फिल्में आरंभ से ही एक सीमा तक भारतीय समाज का आईना रही हैं जो समाज की गतिविधियों को रेखांकित करती आई हैं चाहे वह स्वतन्त्रता संग्राम हो या विभाजन की त्रासदी या युध्द हों या फिर चम्बल के डाकुओं का आतंक या अब माफियायुग इस कथन की पुष्टि बॉम्बे, सत्या, क्या कहना जैसी फिल्में करती हैं
पिछली सदी शुरू होने से पूर्व ही जब देश अपनी स्वतन्त्रता पाने की ओर अग्रसर था और देश में राजनैतिक और सामाजिक सुधार का व्यापक दौर चल रहा था, उसी समय पारसी थियेटरों को पीछे छोडते हुए मनोरंजन के नये स्वरूप सिनेमा का सूर्योदय हुआ यह चलचित्र के नाम से जाना गया इसका प्रथम प्रदर्शन भारत में 1896 में हुआ लुमिरै भाईयों ने छह मूक फिल्मों का प्रदर्शन 7 जुलाई को बम्बई के वाटसन होटल में किया था तब से लेकर आज तक भारतीय फिल्में तकनीकी और अन्य कलात्मक सुधारों के साथ इस मुकाम पर पहुंच गई हैं
पिछले पांच दशकों की बात करें तो देखने को मिलेगा कि भारतीय सिनेमा ने शहरी दर्शकों को ही नहीं गांव के दर्शकों को भी प्रभावित किया है फिल्मी गानों को गुनगुनाने और संवादों की नकल का क्रम मुगले-आज़म, शोले और सत्या तक चल कर आज भी जारी है दक्षिण भारत की ओर नजर डालें तो देखेंगे कि वहां की जनता फिल्मी कलाकारों को भगवान स्वरूप मानकर उनकी पूजा तक करती है फिल्मी कलाकार व निर्माता समय-समय पर राज्यों व केन्द्र की राजनीति में भी सक्रिय होते रहे हैं

एक लेख में भारतीय सिनेमा और समाज के समानान्तर व परस्पर प्रभावों के बारे में प्रकाश डालना गागर में सागर भरने जैसा है
 इसके लिये मैं पहले भारतीय सिनेमा के विकास का उल्लेख करूंगा।

भारतीय सिनेमा का विकार्स ढुंडीराज गोविन्द फाल्के जो दादा साहब फाल्के के नाम से अधिक जाने जाते हैं उन्हें भारत की प्रथम स्वदेश निर्मित फीचर फिल्म राजा हरिश्चन्द्र बनाने का श्रेय जाता है
 इसी फिल्म ने भारतीय चलचित्र उद्योग को जन्म दिया 1920 की शुरूआत में हिन्दी सिनेमा धीरे-धीरे अपना नियमित आकार में पनपने लगा इसी दौरान फिल्म उद्योग कानून के दायरे में भी आ गया समय के साथ साथ कई नई फिल्म कम्पनियों एवं फिल्म निर्माताओं मसलन धीरेन गांगुली, बाबूराव पेन्टर, सचेत सिंह , चन्दुलाल शाह, आर्देशिर ईरानी और वी शान्ताराम आदि का आगमन हुआ भारत की प्रथम बोलती फिल्म  आलम आरा  इम्पीरियल फिल्म कम्पनी ने आर्देशिर ईरानी के निर्देशन में बनाई इस बोलती फिल्म ने समूचे फिल्म जगत में क्रान्ति ला दी

पिछली सदी का तीस का दशक भारतीय सिनेमा में सामाजिक विरोध के रूप में जाना जाता है
 इस समय तीन बडे-बडे बैनरों प्रभात, बम्बई टॉकीज एवं नया थियेटर ने गंभीर लेकिन मनोरंजक फिल्म दर्शकों के सभी वर्गों को ध्यान में रख कर बनाईं इस समय सामाजिक अन्याय के विरोध में अनेक फिल्में जैसे - वी शान्ताराम की दुनिया माने ना, आदमी, फ्रान्जआस्टेन की  अछूत कन्या , दामले और फतहलाल की संत तुकाराम, महबूब की बातें, एक ही रास्ता तथा औरत आदि बनीं प्रथम बार आर्देशिर ईरानी ने रंगीन फिल्म किसान कन्या बनाने का प्रयास किया दशक जिसमें द्वितीय विश्वयुध्द चल रहा था और दशक जिसमें भारत स्वतन्त्र हुआ, पूरे भारत में सिनेमाग्राफी के लिये भी अविस्मरणीय समय है कुछ यादगार फिल्में चालीस के दशक में बनीं जिनमें वी शान्ताराम की  डॉ कोटनीस की अमर कहानी, महबूब की रोटी, चेतन आनंद की नीचा नगर, उदय शंकर की कल्पना, सोहराब मोदी की सिकन्दर, 'पुकार, जेबी एच वाडिया की कोई डान्सर, एमएस वासन की चन्द्रलेखा, विजय भट्ट की  भरत मिलाप एवं रामराज्य, राजकपूर की बरसात और आग प्रमुख हैं

1952 में प्रथम अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह बंबई में आयोजित किया गया जिसका भारतीय सिनेमा पर गहरा प्रभाव पडा
 1955 सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली फिल्म से हिन्दी सिनेमा में नया मोड अाया जिसने भारतीय फिल्म को विश्व सिनेमा जगत से जुडने का नया रास्ता दिया भारतीय फिल्म जगत को अंतर्राष्ट्रीय पहचान तब मिली जब इस फिल्म को अभूतपूर्व देशी-विदेशी पुरस्कारों के साथ-साथ सर्वश्रेष्ठ मानव वृत्त चित्र के लिये केन्स पुरस्कार दिया गया हिन्दी सिनेमा में नववास्तविकतावाद का प्रभाव तब दिखा जब बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन, देवदास और मधुमती, राजकपूर की बूट पॉलिश, र्श्री420, वी शान्ताराम की  दोआँखेंबारह हाथ तथा झनक झनक पाायल बाजे एवं महबूब की मदर इण्डिया प्रदर्शित की गईपचास के दौरान पहली बार भारत-सोवियत के सहयोग से गुरूदत्त की प्यासा तथा कागज़ क़े फूल, बीआरचोपडा की कानून एवं के एअब्बास की परदेसी बनाई गईं फिल्मों का रंगीन होना और उसके बाद मनोरंजन तथा सितारों पर आधारित फिल्मों से फिल्म उद्योग में पूरा परिवर्तन आगया

साठ के दशक की शुरूआत केआसिफ की  मुगल-ए-आजम से हुई, जिसने बॉक्स-ऑफिस पर नया रिकॉर्ड बनाया
 यह ध्यान देने योग्य बात है कि इसमें रोमाटिक संगीत व अच्छी पटकथा का अच्छा समायोजन था बाद में साठ के दशक में अधिकांशत: सामान्य दर्जे की फिल्में बनीं किन्तु वे भी तत्कालीन भारतीय समाज के चित्र अवश्य प्रस्तुत करती थीं और समाज से प्रभावित भी होतीं थीं राजकपूर की जिस देश में गंगा बहती है, संगम, दिलीप कुमार की गंगा-जमुना, गुरूदत्त की  साहिब बीबी और गुलाम , देव आनन्द की गाईड बिमल रॉय की बन्दिनी, एस मुखर्जी की जंगली, सुनील दत्त की  मुझे जीने दो बासु भट्टाचार्य की तीसरी कसम आदि इस दशक की सामाजिक दृष्टि से उल्लेखनीय फिल्में थीं रामानन्द सागर की आरज़ू, प्रमोद चक्रवर्ती की लव इन टोकियो, शक्ति सामन्त की आराधना, ॠषिकेश मुखर्जी की आशिर्वाद और आनन्द, बीआर चोपडा की वक्त, मनोज कुमार की उपकार, प्रसाद प्रोडक्शन की मिलन साठवें दशक के उत्तर्राध्द की बेमिसाल फिल्में थीं इनके साथ ही लोकप्रिय सिनेमा का एक नया समय आरंभ हुआ इस समय के साथ ही भारतीय समाज से फिल्मों में और फिल्मों से भारतीय समाज की ओर आधुनिकता और फैशन की लहर चल पडी महिलाओं में जागरुकता आई संगीत के क्षैत्र में साठ-सत्तर के दशकों को फिल्म संगीत का स्वर्णिम समय माना गया, उत्कृष्ट शायरों्, गीतकारों के शब्दों को संगीत के विरले कलाकारों ने सुरों का जामा पहनाया तब का संगीत आज भी अपनी लोकप्रियता में नए संगीत के आगे धूमिल नहीं हुआ है

सत्तर के दशक में मल्टीस्टार फिल्में आईं
 इस दशक की हिट फिल्में थीं कमाल अमरोही की पाकीजा, राजकपूर की बॉबी, रमेश सिप्पी की शोले नमकहराम के साथ ही अमिताभ बच्चन की फिल्मों का दौर आगया जंजीर, दीवार, खूनपसीना, कभी-कभी, अमर अकबर एन्थॉनी, मुकद्दर का सिकन्दर आदि इनके अतिरिक्त  यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं, धर्मवीर  मेरा गांव मेरा देश आदि उल्लेखनीय रहीं इनमें से अधिकांश फिल्में एक्शन और बदले की भावना पर आधारित थीं डाकुओं के आतंक पर भी इस दशक में कई फिल्म बनींसमानान्तर सिनेमा अपनी जगह बनाने के दौर में था गोविन्द निहलानी की आक्रोश सईद मिर्जा की अलबर्ट पिन्टो को गुस्सा क्यों आता है, अजीब दास्तां, मुजफ्फ़र अली की गमन आदि सत्तर के उत्तर्राध्द में बनीं श्याम बेनेगल की अंकुर इस दशक की उल्लेखनीय सार्थक फिल्म थी, किन्तु मनोरंजनप्रिय उस दौर में सार्थक सिनेमा के अन्य प्रयास खो कर रह गए

अगला दशक यानि अस्सी का दशक सार्थक सिनेमा या नए सिनेमा के आंदोलन के रूप में अपनी चरमसीमा पर था
 इस दशक में दर्शकों ने सिनेमा के इस अतिवास्तविक यथार्थ स्वरूप को सराहा हो न हो किन्तु इससे प्रभावित जरूर हुआ, बुध्दिजीवी दर्शकों का एक नया वर्ग तैयार हुआ, और इन फिल्मों को स्वीकारोक्ति मिली श्याम बेनेगल ने मंथन, भूमिका निशान्त, जूनून और त्रिकाल जैसी समाज विविध ज्वलन्त विषयों का समेटती हुई अच्छी फिल्में दर्शकों को दीं प्रकाश झा की  दामुल सहित अपर्णा सेन की 36 चौरंगी लेन, रमेश शर्मा की नई दिल्ली टाईम्स, केतन मेहता की  मिर्चमसाला, विजया मेहता की  राव साहेब, उत्पलेन्द चक्रवर्ती की  देवशिशु, प्रदीप कृश्पा की  मैसी साहब, गुलजार की इजाजत, मुजफ्फ़र अली की उमराव जान, गौतम घोष की दखल, 'पार, बुध्ददेव दासगुप्त की अन्नपूर्णा, अंधी गली और गिरीश करनाड की उत्सव, तपन सिन्हा की आज का रॉबिनहुड महेश भट्ट की पहली फिल्म अर्थ आदि नए रुझान की फिल्में थीं डाकू, कैबरे नृत्यों, मारधाड, पेडों के आगे पीछे गाना गाते हीरो-हीरोईन से उबे दर्शकों का जायका बदलने लगा था

युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म सलार्मबॉम्बे के लिए 1989 में केन्स में गोल्डन कैमरा अवार्ड जीता
 अस्सी की समाप्ति और नब्बे की शुरूआत में हिन्दी सिनेमा में कुछ लोकप्रिय फिल्मों में मि इण्डिया, तेजाब, कयामत से कयामत तक, मैंने प्यार किया,चांदनी, लम्हे, त्रिदेव, हम, घायल, जो जीता वही सिकन्दर, क्रान्तिवीर, आदि उल्लेखनीय रहीं बाद के नब्बे के दशक में रोमान्टिक प्रेम कहानियों का बोलबाला रहा, हम आपके हैं कौन, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे बॉक्सआफिस पर बहुत हिट रहीं इस दशक में यथार्थवादी फिल्मों की दृष्टि से  द्रोहकाल, परिन्दा, दीक्षा, मायामेमसाब रूदाली, लेकिन तमन्ना बेन्डिट क्वीन  आदि उल्लेखनीय नाम हैं क्षैत्रीय फिल्में भी इस दौर में पीछे नहीं थीं मम्मो (बंगाली), हजार चौरासी की माँ ( बंगाली), तमिल, तेलुगू में अंजलि, रोजा और बॉम्बे का नाम लिया जा सकता है इन की लोकप्रियता के कारण इन सभी फिल्मों की डबिंग हिन्दी में भी हुई

नई शताब्दि में कहो ना प्यार है, रिफ्यूजी,  फिजां आदि उल्लेखनीय फिल्में हैं, अब आगे देखिये फिल्मों को पिक्चर हॉल में देखने की लोकप्रियता के घटते , टेलीविजन की बढती लोकप्रियता और वीडीयो पायरेसी के चलते फिल्म उद्योग का भविष्य क्या होता है आगे आने वाले दशकों में


यह तो हुई भारतीय सिनेमा के विकास की कहानी
अब देखना यह है कि समय-समय पर इन फिल्मों ने हमारे समाज को कैसे प्रभावित किया है दरअसल हमेशा यह कहना कठिन होता है कि समाज और समय फिल्मों में प्रतिबिम्बित होता है या फिल्मों से समाज प्रभावित होता हैदोनों ही बातें अपनी-अपनी सीमाओं में सही हैं कहानियां कितनी भी काल्पनिक हों कहीं तो वो इसी समाज से जुडी होती हैं यही फिल्मों में भी अभिव्यक्त होता है लेकिन हां बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि फिल्मों का असर हमारे युवाओं और बच्चों पर हुआ है सकारात्मक और नकारात्मक भी किन्तु ऐसा ही असर साहित्य से भी होता है क्रान्तिकारी साहित्य ने स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक युवाओं को प्रेरित किया था। मार्क्स के साहित्य ने भी कई कॉमरेड, नक्सलाईट खडे क़र दिये अत: हर माध्यम के अपने प्रभाव होते हैं समाज पर फिल्मों के भी हुए
नकारात्मक प्रभाव इस प्रकार सामने आए कि फिल्म एक दूजे के लिए का क्लाईमेक्स दृश्य देख कई प्रेमी युगलों ने आत्महत्या कर ली थी। यहां तक कि इस फिल्मी रोमान्स ने युवक युवतियों के मन में प्रेम और विवाह के प्रति कई असमंजस डाल दिये हैं कि वे वास्तविक वैवाहिक जीवन में सामन्जस्य नहीं कर पाते कुछ अश्लील किस्म के गीतों ने ईव-टीजींग आम कर दी है ओए-ओए, ' सैक्सी-सैक्सी मुझे लोग बोलें,  मेरी पैन्ट भी सैक्सी, आती क्या खण्डाला आदि इस सैक्सी शब्द को फिल्मों ने इतना आम कर दिया कि इसका उदाहरण मुझे पडौस ही में मिल गया मेरे पडाैस की इस म्हिला से उसके छ: वर्षीय पुत्र ने पूछ ही लिया कि मम्मी ये सैक्सी क्या होता है तो माँ ने जवाब दिया कि आकर्षक और सुन्दर लगना, और कह भी क्या सकती थी? यह बात बच्चे के मन में बैठ गई और किसी समारोह के दौरान उसने अपनी सजी-संवरी माँ को सैक्सी कह दिया आधुनिकता का यह नग्न स्वरूप भारतीय संस्कृति के खिलाफ है अभी हाल में प्रदर्शित मोहब्बतें फिल्म ने यह साबित कर दिया कि भारत के कॉलेज-सकूलों में माईक्रो मिनी स्कर्ट पहन कर बस रोमान्स की सारी हदें पार करते हैं एक और फिल्म जो हाल में प्रदर्शित हुई है आशिक इसमें निर्देशक ने न जाने क्या समझ कर भाई बहन के बीच ऐसे संवाद ठूंसे हैं कि वे भारतीय नैतिकता पर प्रश्न उठाते हैं

जैसे जैसे अपराध की पृष्ठ भूमि पर फिल्में बनती रहीं, अपराध जगत में बदलाव आया
असंतुष्ट, बेरोजगार और अकर्मण्य युवकों को यह पैसा बनाने का शॉर्टकट लगने लगा, और सब स्वयं को यंग एंग्रीमेन की तर्ज पर सही मानने लगे आए दिन आप सुनते आए होंगे कि अमुक डकैति या घटना एकदम फिल्मी अन्दाज में हुई मैं यहां यह नहीं कहना चाहता कि समाज में अपराध के बढते आंकडों के प्रति फिल्में ही जिम्मेवार हैं, लेकिन हां फिल्मों ने अपराधियों के चरित्रों को जस्टीफाई कर युवकों को एकबारगी असमंजस में जरूर डाला होगा

हिन्दी फिल्मों का बाजार जैसे-जैसे विस्तृत हुआ, देश का युवा बेरोजगार 
आँखों में सपने लेकर अपनी किस्मत आजमाने या तो प्रशिक्षण प्राप्त कर या सीधे घर से भाग कर मुम्बई आने लगे उनमें से एक दो सफल हुए, शेष लौट गए या बर्बाद हो गए युवाओं में फिल्मों में अपना कैरियर बनाने के लिए इतना आकर्षण देख फर्जी निर्माता-निर्देशकों की तथा प्रशिक्षण केन्द्रों की बाढ सी आ गई है

भारतीय सिनेमा के आरंभिक दशकों में जो फिल्में बनती थीं उनमें भारतीय संस्कृति की महक रची बसी होती थी तथा विभिन्न आयामों से भारतीयता को उभारा जाता था
 बहुत समय बाद पिछले दो वर्षों में ऐसी दो फिल्में देखी हैं जिनमें हमारी संस्कृति की झलक थी, हम दिल दे चुके सनम और हम साथ साथ हैं। हां देश के आतंकवाद पर भी कुछ अच्छी सकारात्मक हल खोजतीं फिल्में आई हैं , फिजां और मिशन कश्मीर

आज एक सफल फिल्म बनाने का मूल मन्त्र है, खूबसूरत विदेशी लोकेशनें, बडे स्टार, विदेशी धुनों पर आधारित गाने
 बीच में कुछ ऐसी फिल्में भी आईं जिनके निर्माताओं का काम था भारत की कुरीतियों, विषमताओं और विवादित मुद्दों पर फिल्म बना दर्शकों का विदेशी बाजार बनाना और घटिया लोकप्रियता हासिल करना   कामसूत्र, फायर आदि ऐसी ही फिल्में हैंकमल हासन की  हे राम  भी खासी विवादित रही

वैसे कुल मिला कर देखा जाए तो भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ने काफी तकनीकी तरक्की कर ली है
 अब जैसे जैसे फिल्मव्यवसाय बढ रहा है फिल्मों के प्रति दर्शकों की सम्वेदनशीलता घट रही है आज हमारे युवाओं के पास विश्वभर की फिल्में देखने और जानकारी के अनेक माध्यम हैं

हाल ही की घटनाओं ने फिल्म व्यवसाय पर अनेकों प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं
 गुलशन कुमार की हत्या, राकेश रोशन पर हुए कातिलाना हमले, फिल्म चोरी-चोरी चुपके-चुपके के निर्माता रिजवी व प्रसिध्द फाईनेन्सर भरत शाह की माफिया सरगनाओं से सांठ-गांठ के आरोप में गिरफ्तारी, इन प्रश्नों और संदेहों को पुख्ता बनाती है कि हमारा फिल्म उद्योग माफिया की शिकस्त में बुरी तरह घिरा है

आज भारत साल में सर्वाधिक फिल्में बनाने में अग्रणी है, माना अत्याधुनिक उपकरणों, उत्कृष्ट प्रस्तुति के साथ यह नए युग में 
पहुंच चुका है, लेकिन गुणवत्ता के मामलों में भारतीय सिनेमा को और भी दूरी तय करनी है साथ ही यह तय करना है कि समाज के उत्थान में उसकी क्या भूमिका हो अन्यथा टेलीविज़न उसे पीछे छोड देगा कितना ही आधुनिक हो जाए भारत, यहां राम अभी तक नर में हैं और नारी में अभी तक सीता है

शनिवार, 13 अगस्त 2016

वो आज भी अकेली है...

लीजिए आ गया मेरी नॉवेल का छोटा सा अंश आपके सामने... जल्द प्रकाशित होगी.. आप इतने इस अंश का आनंद लीजिए...पूरी पढ़ेंगे तभी आनंद आएगा..

वो आज भी अकेली है...

हॉस्पिटल के सामने एक सफेद कार आकर खड़ी हुई, उसमें से लंबे कद का नौजवान उतरा.. समीर (गुजरात का रहने वाला एक पारसी) ही वो शख्स था। उसकी नजरें उम्मीदों से भरी थीं। हाथों में सफेद फूलों का गलुदस्ता था। निगाहें शायद किसी को ढूंढ रही थीं। दिमाग कहीं कुछ सोच में था।
समीर आज अपनी पुलिस यूनिफार्म में नहीं था। और उसका मूड भी हमेशा की तरह ठीक नहीं लग रहा था। सीधे लिफ्ट के पास जाकर उसने लिफ्ट का बटन दबाया। लिफ्ट में प्रवेश कर उसने फ्लोर नं. 12 का बटन दबाया। लिफ्ट बंद होकर ऊपर की तरफ दौड़ने लगी। लिफ्ट की रफ्तार के साथ उसके दिमाग में चल रहे विचारों ने भी रफ्तार पकड़ ली...
दीवार पर खून से गोल निशान क्यों बनाया गया होगा?....

फॉरेन्सिक जांच में खून सनी का ही पाया गया?...

जरूर सनी गोल निशान बनााकर कुछ बताने की कोशिश कर रहा होगा...

खून किसने किया इसका अंदाजा शायद श्रुति को होगा...

लिफ्ट रुक गई और लिफ्ट की बेल बजी। बेल ने समीर के विचारों की श्रृंखला को तोड़ा। सामने इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले में 12 नंबर डिस्प्ले हुआ। लिफ्ट का दरवाजा खुला और समीर लिफ्ट से बाहर निकल गया। अपने लंबे-लंबे कदम से चलते हुए समीर सीधा 'बी' वार्ड में घुसा।
समीर ने एक बार अपने हाथ में पकडे़ फूलों के गुलदस्ते की ओर देखा और उसने 'बी2' रूम का दरवाजा धीरे से ख़टखटाया। थोड़ी देर तक राह देखी, लेकिन अंदर कोई भी आहट नहीं थी। उसने दरवाजा फिर से ख़टखटाया - इस बार जोर से। लेकिन, अंदर कोई हलचल नहीं थी। यह देखकर उसने अपनी उलझन भरी नजर इधर-उधर दौड़ाई। उसे अब चिंता होने लगी थी। वह दरवाजा जोर-जोर से ठोकने लगा।

क्या हुआ होगा?...

यहीं तो थी श्रुति...

आज उसे डिस्चार्ज तो नहीं करने वाले थे...

फिर .. वह कहां गई?

कुछ अनहोनी तो नहीं हुई होगी?

उसका दिल धडकने लगा। उसने फिर से आजू-बाजू देखा। वार्ड के एक कोने में काउंटर था. काउंटर पर उसे जानकारी मिल सकती है... ऐसा सोचकर वह तेजी से काउंटर की तरफ पहुंचा।
"एक्सक्यूज मी" उसने काउंटर पर बैठी नर्स का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने का प्रयास किया।
नर्स के लिए यह रोज का था, क्योंकि समीर की तरफ ध्यान न देते हुए वह अपने काम में व्यस्त रही।
'' 'बी2' में एक पेशंट थी... श्रुति श्रीवास्तव... कहां गई वो?... उसे डिस्चार्ज तो नहीं किया गया? ... लेकिन उसका डिस्चार्ज तो आज नहीं था ... फिर वो कहां गई? ... वहां तो कोई नहीं...'' समीर सवालों पे सवाल पूछे जा रहा था।
"एक मिनट ... एक मिनट ... कौन सा रूम कहा आपने?'" नर्स ने उसे रोकते हुए कहा।
"बी2".. समीर ने एक गहरी सास लेकर कहा..
नर्स ने एक फाइल निकाली। फाइल खोलकर 'बी2' ... बी2' ऐसा बोलते हुए उसने फाइल के इंडेक्स के ऊपर अपनी लचीली उंगली फेरी। फिर इंडेक्स में लिखा हुआ पेज नंबर निकालने के लिए उसने फाइल के कुछ पन्ने अपने एक खास अंदाज में पलटे।
"'बी2' ... मिस श्रुति श्रीवास्तव..." नर्स तसल्ली करने के लिए बोली।
" हां ...श्रुति श्रीवास्तव" समीर ने कंन्फर्म किया।
समीर उत्सुकता से उसकी तरफ देखने लगा, लेकिन नर्स एकदम शांत थी। जैसे वह समीर के सब्र का इम्तिहान ले रही हो। समीर का सब्र अब टूट रहा था। उसे गुस्सा आ रहा था।
'' सॉरी ... मिस्टर ..?" नर्स ने समीर का नाम जानने के लिए ऊपर देखा।
समीर का दिल और जोर-जोर से धड़कने लगा।
"समीर" समीर ने खुद को संभालते हुए अपना नाम बताया।
" सॉरी ... मिस्टर समीर ... सॉरी फॉर इंकन्व्हीनियंस ... श्रुति को दूसरे रूम में ... बी23 में शिफ्ट किया गया है...." नर्स बोली।
समीर की जान में जान आई...
"ऍक्चुअली ... बी2 बहुत कंजेस्टेड हो रहा था ... इसलिए उनके ही कहने पर...." नर्स अपनी सफाई दे रही थी।
लेकिन, समीर को कहा उसे सुनने की फुर्सत थी? नर्स के बोलने से पहले ही समीर वहां से तेजी से निकल गया ... बी23 की तरफ...

मंगलवार, 2 अगस्त 2016



कानून सच में अंधा है..?

महिलाओं के साथ बदसलूकी-बलात्कार जैसी घटनाओं को लेकर लगातार विरोध के स्वर, प्रशासन के मुस्तैदी संबंधी दावों और चेतना जगाने के प्रयासों के बावजूद इस दिशा में कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकल पा रहा है। ऐसी घटनाओं के आंकड़े बढ़ ही रहे हैं। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में एक कार से महिला और उसकी नाबालिग बच्ची को खींच कर उनके साथ सामूहिक दुष्कर्म इसका ताजा उदाहरण है।

पीड़िता अपने परिवार के साथ नोएडा से देर रात को चल कर अपने घर शाहजहांपुर जा रही थीं। बुलंदशहर कोतवाली देहात इलाके से जब वे गुजर रहे थे तो एक गांव के पास उनकी कार से किसी भारी चीज के टकराने की आवाज आई। उन्होंने गाड़ी रोक दी। इसी बीच करीब आधा दर्जन बदमाशों ने उन्हें घेर लिया। गाड़ी में सवार पुरुषों को पेड़ से बांधा और महिला व उसकी बेटी के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया। इस घटना के बाद कोतवाली देहात के प्रभारी को लाइन हाजिर कर दिया गया। जब भी किसी घटना से सरकार और पुलिस की किरकिरी शुरू होती है, इसी तरह किसी अधिकारी को हटा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महिलाओं के साथ ऐसे दुष्कर्म और गाड़ियों की चोरी, राहजनी, झपटमारी जैसी घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं और इन्हें रोक पाना पुलिस के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। युवाओं में पनपती आपराधिक वृत्ति और महिलाओं के प्रति उनके संकीर्ण और दूषित नजरिए को लेकर अनेक अध्ययन आ चुके हैं। बहुत सारी जगहों पर सामूहिक बलात्कार की घटनाएं बदले की भावना के चलते भी होती हैं, खासकर नीची कही जाने वाली जातियों की महिलाओं के साथ ऊंची जातियों के लोगों का दुष्कर्म। मगर दिल्ली के विस्तार के साथ-साथ इससे सटे इलाकों में ऐसी घटनाएं बढ़ने के पीछे बड़ी वजह गुमराह और बेरोजगार युवाओं का संगठित अपराध की तरफ आकर्षित होना है। इन्हें कैसे सही रास्ते पर लाया जाए, इसका कोई उपाय सरकार के पास नहीं है।

दिल्ली के आसपास पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के एक बड़े हिस्से में रिहायशी कालोनियां बसाने, व्यावसायिक केंद्र खोलने, सड़कों और दूसरी परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण हुआ है। जो परिवार खेती-बाड़ी पर निर्भर थे, उन्होंने मुआवजे की रकम से आलीशान मकान बनवा लिए, बड़ी-बड़ी गाड़ियां खरीद लीं और महानगर की रंगीनी में रंग गए। बाजार ने उनकी ख्वाहिशें बढ़ा दीं। ऐशो-आराम की हर चीज उन्हें भाने लगी। रईसों के शौक उन्हें लुभाने लगे। संचार माध्यमों से उन्हें उन्मुक्त होने का नुस्खा हाथ लगा। पर आजीविका का साधन न होने के कारण धीरे-धीरे उन परिवारों के युवाओं में कुंठा घर करती गई और वे आसान तरीके से पैसे कमाने के रास्ते तलाशने लगे। अपराध को उन्होंने जायज जरिया मान लिया।

राहजनी, अपनी कुंठा मिटाने के लिए महिलाओं से बदसलूकी, चोरी आदि प्रवृत्तियां उनमें तेजी से पनपी हैं। जब किसी समाज का पारंपरिक पेशा छीनता है, उसका सामुदायिक जीवन नष्ट-भ्रष्ट होता है तो उसके युवाओं में ऐसी ही प्रवृत्तियां पैदा होती हैं। विकास के नाम पर जो सरकारें किसानों से जमीनें ले रही हैं, मगर उनके समुचित पुनर्वास पर ध्यान नहीं दे रही हैं, उन्हें इस मसले पर सोचने की जरूरत है। अपराध को उचित मान लेने वालों को कैसे सही रास्ते पर लाया जा सकता है, इसके लिए उपाय जुटाने की जरूरत है। यह सिर्फ किसी पुलिस अधिकारी को लाइन हाजिर कर देने से काबू में नहीं आने वाला। हमें दिखाना होगा कि हमारे देश का संविधान और कानून अभी इतना अपाहिज नहीं हुआ। लोगों को आभास दिलाना होगा...कि क्या हमारा कानून अंधा नहीं है..!

शनिवार, 30 जुलाई 2016

 डोपिंग या साजिश !

पहलवाल नरसिंह यादव का डोप टेस्ट में फेल होना भारतीय उम्मीदों के लिए तगड़ा झटका है। इससे भारतीय खेल प्रशासन की साख पर भी सवाल उठेंगे। ब्राजील के शहर रियो द जनेरो में 5 अगस्त से शुरू हो रहे ओलिंपिक खेलों के लिए भारतीय दल में यादव का चयन पहले से विवादित था। 74 किलोग्राम वर्ग में दावा दो बार के ओलिंपिक पदक विजेता सुशील कुमार का भी था। पिछले साल लास वेगास में हुई विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीतकर नरसिंह ने रियो का टिकट हासिल किया। मगर इससे सुशील असंतुष्ट थे। तो मामला कोर्ट में गया, हालांकि न्यायपालिका ने टीम चयन में दखल देने से इनकार कर दिया।

अब जबकि नेशनल एंटी-डोपिंग एजेंसी (नाडा) ने नरसिंह के डोप टेस्ट में फेल होने की खबर जारी की है, तो उन्होंने इस घटनाक्रम के पीछे षड्यंत्र का आरोप लगाया है। भारतीय कुश्ती संघ के कुछ सूत्र भी ऐसा शक जता रहे हैं। संकेत यह दिया गया है कि नरसिंह यादव के विरोधी तत्वों ने उन्हें टीम से बाहर कराने की चाल चली। ऐसे इल्जाम लगना किसी खिलाड़ी के डोप टेस्ट में फेल होने से भी अधिक हानिकारक एवं दुर्भाग्यपूर्ण हैं। प्रश्न है कि क्या भारतीय ओलिंपिक संघ अपने खिलाड़ियों की षड्यंत्रकारियों से रक्षा करने में अक्षम है? क्या नाडा षड्यंत्र में शामिल या उसका शिकार होता है? ऐसी धारणा बनना भी भारतीय खेलों के लिए घातक होगा। भूलना नहीं चाहिए कि रियो ओलिंपिक रूस में हुए डोपिंग घोटाले के साये में आरंभ होने जा रहा है।

वर्ल्ड एंटी-डोपिंग एजेंसी (वाडा) की जांच से जाहिर हुआ कि मैदान पर प्रदर्शन में इजाफे के लिए रूस में संगठित ढंग खिलाड़ियों को प्रतिबंधित दवाएं दी जाती थीं। तब इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक्स फेडरेशंस (आईएएएफ) ने रूसी एथलेटिक्स फेडरेशन को निलंबित कर दिया। नतीजतन, रियो ओलिंपिक के एथलेटिक्स मुकाबलों में रूसी खिलाड़ी अपने देश का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकेंगे। वाडा ने रूस के सभी खिलाड़ियों और अधिकारियों को रियो ओलंपिक से बाहर करने की मांग की है। अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक समिति का इस पर फैसला अभी आना है।

बहरहाल, ये साफ है कि रूसी खेल प्रशासन की विश्वसनीयता तार-तार होने की कितनी भारी कीमत वहां के खिलाड़ियों को चुकानी पड़ रही है। सबक है कि राष्ट्रीय खेल प्रशासनों की स्वच्छता और ईमानदारी बेदाग बनी रहनी चाहिए। नरसिंह यादव ने जाने-अनजाने में प्रतिबंधित दवाएं लीं, तो यह अपने आप में बुरी खबर है। इससे ओलिंपिक शुरू होने के पहले ही भारत के एक पदक की आस टूटने का खतरा पैदा हुआ है। लेकिन यदि यह सामने आया कि उनके विरोधी उन्हें फंसाने में सफल हो गए, तो यह भारतीय खेल प्रशासन के माथे पर लगा अमिट कलंक होगा। (दोनों ही स्थितियों में) दोषी कौन है, उसकी पहचान और उसकी जवाबदेही जरूर तय की जानी चाहिए।